Tuesday, April 19, 2016

जीवन एक यात्रा

मुझे आजकल ये एहसास होने लगा है, की अगर जीवन एक यात्रा है तो मै एक ऐसे ट्रेन में सफ़र कर रहा हूँ जो कब की छूट चुकी है। मैंने बड़ी कोशिस की थी उसे दौड़ कर पकड़ने की, यात्रा से कई दिनों पहले स्टेशन भी पहुँच गया था, मगर फिर भी ट्रेन छूट ही गयी और मै उस पर सफ़र करता चला गया। अभी भी करता ही जा रहा हूँ, स्टेशन कितने आये गए जो अपने नहीं लगे, जिन्हें कभी भी मैंने जाना नहीं था, कई बार उतरा उन पर। रात बिता दी, देखता रहा चाँद की रौशनी कैसे अपनी परछाई छोड़ जाती है इन सुने स्टेशन पर। अनगिनत गिलास चाय के पिए, वो चाय की ही प्यास तो थी जो उतार लाइ थी मुझे इस उजड़े सुनसान से स्टेशन पर। मै फिर बैठ गया इंतज़ार करने उस अगली गाडी का जिसे छूट ही जाना है, मगर ये गाड़ियाँ जाती कहाँ है, उन पर न नंबर होता है, न ठीकाना, फिर ये आखिर जाती कहाँ है। और ये लोग जो इसमें बैठे हैं, ये इतने खुश नज़र आते हैं , क्या इन्हें पता है वो किधर जा रहे हैं? क्या भटका हुआ केवल एक मैं ही हूँ? जब पुल पर गाडी सरसराती हुई निकल जाती है, एक गड-गड की आवाज़ जब पटरियों से होते हुए जब सामने वाले बर्थ से सिमटते हुए इस अँधेरे वातावरण की शान्ति को भिगो जाती है, अब कहीं उसकी प्रतिध्वनि लौट कर आती है मेरी कानों में। बगल की सीट पर बैठी हुई एक लड़की अंगड़ाई लेकर फिर से सो जाती है, उसे भी शायद पता है वह कहाँ जा रही है। इस प्रतिध्वनि से मै जाग जाता हूँ; जीवन का शायद एक और पुल पार हो गया जिसे मैंने कभी बनाया नहीं था। कौन बना जाता है ये पुल जिन पर हमें चलना ही होता है? जैसे ये रास्ते अपने आप ही चलते जाते हैं और हमें एक छूटने वाली गाडी में छोड़ जाते हैं? मैंने तो अपने पीछे के सभी पुल जला डाले थे, फिर भी इन खड खडाती हुई पटरियों में मुझे अपना ही राग सुनाई  दे जाता है, जैसे कोई है, आता है रोज़, घंटो बैठ जाता हो मेरे किनारे, मगर अपने होने का प्रतीक नहीं छोड़ता। मै रोज़ उन कागज़ के टुकड़े जो वो बिखेर जाता है उसे इक्कठा करता, नित समेट कर उन्हें रख देता, पानी का बर्तन छोड़ देता गर्म होने के लिए फिर बैठ कर उसका इंतज़ार करता रहता। वह रोज़ नहीं आती, चाय की गिलास वैसे ही भरी रह जाती, वैसे ही रोज़ टिकेट चेकर आकर टिकेट देख जाता और मुस्कुराकर कहता , आपको पहले भी कहीं देखा है? शायद आप हमेशा सफ़र पर ही रहते हैं? आप काम क्या करते हैं? जी, मैं? मैं हमेशा उसी ट्रेन में होता हूँ जो मुझसे छूट गयी हो। फिर ये किताबें? ये किताबें मेरी नहीं हैं, ये किसी की अमानत है वो छोड़ गयी थी कभी सफ़र में, कहा था फिर आकर कभी ले जायेगी। भैया ये गाडी इस स्टेशन पर नहीं रूकती? सर आप कौन सी गाडी में बैठ गए? वो इस गाडी से पहले ही कहीं दूर चली गयी ? फिर ये पुल कौन सा था , इतना विस्तार जैसे अपने भीतर कितनी सदियों का भार उठाये हुए? ये नदी कौन सी थी जो निरंतर बहे चली जा रही है अपने विस्मृति में? मै भी शायद कभी आया था उसके घाट  पर एक नाव बना कर बहा देने के लिए, उसमे एक ख़त और कितने ही सपने थे। पता नहीं उस नाव का क्या हुआ? कागज़ की नाव पर सपने चलते हैं बाबू? उस पर नाम धुला नहीं होगा, है न? किसी ने तो उसे पाकर अपने पास सहेज कर रख लिया होगा? या फिर निकल पड़ा होगा उस लड़की की खोज में जिसके नाम यह ख़त लिखा था मैंने? या फिर क्या उसने उसी तरह उसे छोड़ दिया होगा पिघलने के लिए? या फिर अभी भी वह बहे चले जा रही है, क्यूँ की उसे कोई उठाने वाला नहीं मिला? 


February 6, 2013. 

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