Friday, January 18, 2013

अधूरी कविता

जीवन में ऐसा अलगाव नहीं 
की दूर हो जाऊं तुमसे,  
पर अब लगता है दूर हो कर 
ही बना पाऊंगा मैं घर अपने 
और तुम्हारे न होने के।  

अच्छा होता ये अलगाव के 
घर, ये पास रह कर भी दूर 
होने के आभास भी हम साथ 
ही बनाते, शायद ऐसा कुछ होता 
जिसे यादों में रख कर कहते की 
कुछ तो साझा किया  और बनाया 
हमने: ये साथ न सही, महसूस होता 
यह एकाकीपन तो हमने साथ जिया। 

शायद इसी शून्य में हमारे लौटने 
का रास्ता निकल आये?

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